मुरली तेरा मुरलीधर / प्रेम नारायण 'पंकिल' / पृष्ठ - २९
देख शरद वासंती कितने हुए व्यतीत दिवस मधुकर
काल श्रृंखलाबद्ध अस्त हो जाता भास्वर रवि निर्झर
भग्न पतित कमलों की परिमल सुरभि उड़ा ले गया पवन
टेर रहा है कालविजयिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।141।।
मूढ़ जुटाता रहा मनोरथ के निर्गंध सुमन मधुकर
सच्चा के अर्चा की मधुमय वेला बीत गयी निर्झर
अंध तिमिर में अहा भटकता तू अब भी दिग्भ्रान्त पथिक
टेर रहा है दिशालोकिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।142।।
शरद पूर्णिमा में ज्योत्सना का फेनिल हास बिछा मधुकर
भ्रमित पवन में गन्ध लता का कर मुखरित नर्तन निर्झर
करुण पपीहा के स्वर में झंकृत कर प्राणों की वीणा
टेर रहा है विरहोच्छ्वसिता मुरली तेरा मुरलीधर।।143।।
एक एक कर खुली जा रहीं सारी नौकाएँ मधुकर
स्वागत में बाँहें फैलाये स्थित ज्योतिर्मय रस निर्झर
तू कैसी गोपी बैठी ले मुरझायी पंकिल माला
टेर रहा है चारुहासिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।144।।
तेरी भग्न वीण से कोई राग नहीं झंकृत मधुकर
स्तंभित चरण नृत्य के तेरे स्तब्ध हुए नूपुर निर्झर
और न कुछ आँसू तो होंगे उनका ही ग्राहक सच्चा
टेर रहा है जगदालम्बा मुरली तेरा मुरलीधर।।145।।