मुरली तेरा मुरलीधर / प्रेम नारायण 'पंकिल' / पृष्ठ - ४५
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तुम गुरु स्वयं शिष्य मन तेरा प्रथम सुधारो मन मधुकर
जग सुधार कामना मत्त मत जग में करो गमन निर्झर ।
करता विरत कृष्ण-चिन्तन से जगत राग द्वेषादि ग्रसित
टेर रहा है मनसंयमिनी मुरली तेरा मुरलीधर ॥ २२१॥
स्वयं कृपालु बनो मन पर दो उसे प्रबोधन स्वर मधुकर
प्यारे अब बनना न किसी का प्रियतम प्रिया तनय निर्झर।
अपनी पूरी शक्ति लगा दो बना उसे हरि चरण भ्रमर
टेर रहा है मनस्तोषिणी मुरली तेरा मुरलीधर ॥ २२२॥
समय न गंवा व्यर्थ चिन्तन में अन्तस्तल में जग मधुकर
मुट्ठी में बाँधता लहर की झाग अज्ञ फेनिल निर्झर ।
सागर की गहराई में हीरे हैं रहा टटोल कहाँ
टेर रहा अस्तित्वबोधिनी मुरली तेरा मुरलीधर ॥ २२३॥
तुम्हें अनंत कर दिया उसने ऐसा सुखदाता मधुकर
पुनः पुनः कर रिक्त पुनः नव जीवन भर जाता निर्झर ।
तेरी लघु वंशी से घाटी-घाटी गाता गीत नवल
टेर रहा अनवरत सहचरी मुरली तेरा मुरलीधर ॥ २२४॥
आती भेंट उतर अनंत की तेरे लघुकर में मधुकर
अमृत स्पर्श उसके हाथों का रचता हर्श सिन्धु निर्झर ।
युग बीतते उड़ेल रहा भरने को फिर भी शेष सदन
टेर रहा अक्षयसुखकोषा मुरली तेरा मुरलीधर ॥ २२५॥