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मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू / ज़ेब गौरी
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मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा
बचा है पैरहन जाँ में क्या रफ़ू के सिवा.
हवा चली थी हर इक सिम्त उस को पाने की
न कुछ भी हाथ लगा गर्द-ए-जुस्तुजू के सिवा.
किसी की याद मुझे बार बार क्यूँ आई
उस एक फूल में क्या शै थी रंग ओ बू के सिवा.
उभरता रहता है इस ख़ाक-ए-दिल पे नक़्श कोई
अब इस नवाह में कुछ भी नहीं नुमू के सिवा.
अधूरी छोड़ के तस्वीर मर गया वो 'ज़ेब'
कोई भी रंग मुयस्सर न था लहू के सिवा.