Last modified on 31 जनवरी 2013, at 13:59

मुर्दों की घाटी को मौन / विमल राजस्थानी

है चारों ओर मौत का-सा सन्नाटा
कोई तो कलम हिले, कोई तो बोले

चैतरफा छायी है खामोशी ऐसी
मुर्दों की घाटी में रहती है जैसी
यह बात नहीं-घावों में टीस नहीं है
मन को पीड़ा आँसू में ढली-बही है
पर जब झंझा-झकोर की हमें जरूरत
कतरा कर चल देना, क्या बात सही है ?

हैं अब भी वे ही हथकडि़याँ हाथों में
है कौन कलम का धनी इन्हें जो खोले

जंजीर झनझना कर चुप हो जाती है
आहें निस्सीम व्योम में खो जाती हैं
यदि बहुत हुआ तो धँसी हुई ये आँखें
चुपचाप रेत में आँसू बो जाती हैं
ग्रीवा-विहीन धड़, सामंती तलवारें
छटपट-छटपट करते हम शीश टटोलें

जब तक न मतों की सार्थकता आँकेंगे
गहर में जातिवाद के हम झाँकेंगे
मा की चूनर पर पेबंद ही टाँकेंगे
रह कर दरिद्र, पथ-धूल सदा फाकेंगे

दुष्टों के हाथों में नकेल दे अपनी
कब तक हम झूलेंगे दुख के हिंडोले

है सही समय, हमको विचार करना है
गोली-बम से हमको तनिक डरना है
खूशबू से भर देनी हैं दसों दिशाएँ
‘संसद’ को सिर्फ सपूतों से भरना है

आनेवाली पीढ़ी तक क्षमा करेगी
सहलायेंगे जब मा को पड़े फफोले

है चारों ओर मोत का-सा सन्नाटा
कोई तो कलम हिले, कोई तो बोले
है अब भी वे ही हथकडि़याँ हाथों में
है कौन कलम का धनी, इन्हें जो खोले