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मुर्दों में भी हरकत होती है कहीं / अंजू शर्मा

इतिहास की किताबें सुलग रही हैं एक कोने में,
रो रहे हैं अशोक, अकबर और चन्द्रगुप्त मौर्य,
करोड़ों साल पुरानी एक सभ्यता गिन रही है अपने साल
और हर शताब्दी पर, भूल जाती है गिनती,

हर एक फतवे और बैन का तमगा अपनी पीठ पर लादे,
हर बार कुछ और झुक जाती है, शायद रीढ़ का लचीलापन ही इसकी
असली विरासत है,
मैं शर्मसार हूँ क्योंकि जिन्दा हूँ, और मेरा भी एक नाम है,
वाबस्ता हूँ उस कौम से जो सालों पहले अपनी ही मौत मर चुकी है,
मैं शर्मसार हूँ, क्योंकि आदत से मजबूर हूँ और
मुर्दों के इस हुजूम में चंद चिंगारियां तलाशना मेरी फितरत है,


सदियों से, रफ्ता रफ्ता राख में बदलता, शक्लों का ये ढेर
सीने में दफन रखता है कुछ चीखें, कुछ अस्फुट आवाजें,
दो-चार मसीहा जो नमूदार होते हैं और हिलाते हैं हैं इस राख को
फिर खुद भी एक दिन जज़्ब हो जाते हैं इसी के आगोश में,
ये कब्रिस्तान सोख लेता है हर गर्म लहू का कतरा कतरा और
एक दिन राख में बदल जाता है उनका भी वजूद, चंद सिक्कों की खातिर,

फ़ना हो जाती है हर उम्मीद कि एक दिन बदलाव आएगा और जी उठेगा
ये हुजूम,
मुर्दों में भी हरकत होती है कहीं,
और क्या लाशें भी इंक़लाब किया करती हैं,
और हम जो पी चुके हैं हर गुलामी को, बदल चुके हैं एक ज़र-खरीद
गुलाम में,
हर बार सर झुकाते है एक नए आका के सामने, नहीं जानते कि गर्दन
ऊपर भी उठ सकती है,

जमीन फिर देखती है आसमान की तरफ उधार का एक कटोरा लेकर,
किसी रोज़ बरसेंगी फिर से चंद उम्मीदें, कुछ आशाएं और शायद इस
बार पुख्ता नतीजे...