भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुलतान से मुमताज की चीख / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अय खुदा! ये बेइन्तिहा बहशिअत,
यह खुलेआम सामूहिक बलात्कार, यह आदि-अनादि बर्बरता!
और पर जुल्म करने में ये आदमी किसी से क्या खुदा तक से नहीं डरता!

कल अकेली ही झेली मैंने औरत होने की एक आदिम त्रासदी
चार दरिन्दे मेरा शरीर नोंचते, दबोचते, भोगते रहे,
न मैं चीख सकी, न निरीह सभ्यता ही चीख सकी।
फिर लोगों ने निकाला मेरा खुली सड़क पर नंगा जुलूस,
इतिहास के इकट्ठे उजालों का, मेरे साथ यह अन्धा, अँधेरा सलूक!

अय खुदा! ऐसा क्यों होता है कि
औरत की अस्मत तो होती है, अस्मिता नहीं होती;
एक इंसान नहीं होती वह,
उसके कोई प्राण नहीं होते, उसकी कोई आत्मा नहीं होती!
आदमी जब-जब नंगा होकर खड़ा हो जाता है,
औरत सिर्फ एक औरत ही होती है, और कुछ नहीं होती!

अय खुदा! इससे तो अच्छा होता, मैं सिर्फ एक जानवर होती,
तब बलात्कार के बाद, कम से कम मेरी नंगी नुमाइश तो नहीं होती;
जानवरों की कोई भीड़, मुझे देखने इकट्ठी नहीं होती;
शायद पैशाचिकता की भी एक हद होती है,
पर, औरत पर आदमी के अत्याचारों की कोई सरहद नहीं होती!