भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुलम्मा / गोविन्द कुमार 'गुंजन'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बचपन में देखा था
गाँव में आते थे
बर्तनों पर कलई करने वाले

कंधे से उतारते एक पोटली
जमीन में गढ्ढ़ा करते, और
उनमें कोयले जला कर
चर्खी वाले हाथ के पंखे से
करते थे हवा

तड तड़ाती चिंगारिया उड़ती,
धधक कर सुलगने लगते थे कोयले

उस आँच पर
वो तपाते पीतल के बर्तन
पतीलियाँ, थालियाँ, लोटे

चुटकी भर
नौसादर डालकर बर्तन में
घुमाते कथील का टुकड़ा,
पोछते उसे कपड़े से

तपे हुए कथील की चमक
बर्तन के भीतर तक भर देते थे

ताजी कलई वाले
गिलासों में पानी
या ताजा ताजा कलईदार
थालियों में रोटी का स्वाद
अभी भी भूला नहीं जाता
अब तो
रसोई घरों में
स्टील की दुनिया है

पीतल
निकासित है बरसों से

मगर
कलई खुल जाने के मुहावरे
में अभी भी बची हुई है कलई
वर्ना
स्टील को जरूरत नहीं मुलम्में की

अब
आदमी का बंदोबस्त
पक्का है बहुत

वह
उतरने नहीं देता मुलम्मा
खुलने नहीं देता कलई