मुलाक़ात / राजेश्वर वशिष्ठ
उसकी प्रतीक्षा में
जब मैं बुदबुदा रहा था एक प्रार्थना
किसी अनजान देवता के लिए
उसी क्षण
वह किसी स्वप्न सी अवतरित हुई !
दोपहर के उजास में
वह दमक रही थी
रजनीगन्धा के फूलों की तरह
जो जड़ों से कटकर भी घण्टों मुस्कुरा लेते हैं !
मेरी साँसों तक पहुँच रही थी
एक ऐसी जादुई गन्ध
जो मिलती नहीं
हमारी दुनिया के फूलों में
वह कस्तूरी की तरह बसती है
किसी निश्छल आत्मा में !
उस दिन भी विंड चाइम की तरह
खनक रही थी उसकी हँसी
वह काँप-काँप जाती थी
फूलों के बोझ से लदी
डाली की तरह -- पल-पल
उन क्षणों में ज़रूर
अधीर हो गया होगा वसन्त !
वह अपनी सारी उदासी
और दुखों को
सफ़ेद साड़ी में
कस कर जकड़े हुए थी
जो फिर भी झाँक-झाँक जाते थे
साड़ी के गहरे नीले बॉर्डर से
आँखों के काजल से
और शब्दों के स्फोट से !
उन क्षणों में
वह एक ऐसी प्रेम कविता थी
जिसे मैं लिख रहा था अपने हृदय पर
और वह अनमनी सी चमक रही थी
मेरे हर शब्द में
ध्रुव तारे की तरह !
कभी-कभी हम
कविता से भी मिलते हैं !