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मुश्किलों में फ़क़त तज्रुबा रह गया / सूरज राय 'सूरज'

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मुश्किलों में फ़क़त तज्रुबा रह गया।
जो पढ़ा था पढ़ा का पढ़ा रह गया॥

एक-एक करके सब छोड़कर चल दिये
साथ मेरे मेरा आइना रह गया॥

क्या पता ख़त्म कब हो गया ये सफ़र
मैं ख़ुदी का पता पूछता रह गया॥

इक अंगूठी बदलती रही उँगलियाँ
मैं नगीने की तरह जड़ा रह गया॥

छोड़कर जिस्म, दोनों खड़े हैं मगर
या ख़ुदा कौन-सा फ़ासला रह गया॥

हर्फ़ सब दास्ताँ के बरी हो गये
बस गुनहगार में हाशिया रह गया॥

जड़ दिये ताले अलमारियों में सभी
घर का दरवाज़ा लेकिन खुला रह गया॥

जिस्म के सारे "सूरज" फ़ना हो गये
रूह का एक दीपक जला रह गया॥