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मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता / शहबाज़ ख्वाज़ा
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मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता
तोड़ा ही नहीं हम ने मगर ख़ाक से रिश्ता
हर सुब्ह की क़िस्मत कहाँ रुख़्सार की लाली
हर शब का कहाँ दीदा-ए-नमनाक से रिश्ता
बख़्शी है तुझे जिस ने ख़द-ओ-ख़ाल की दौलत
है मेरे बदन का भी इसी चाक से रिश्ता
छोड़ा है किसे फ़िक्र के दरिया ने सलामत
रास आया किसे मौजा-ए-इदराक से रिश्ता
‘शहबाज़’ मैं धरती से हूँ मंसूब कुछ ऐसे
जैसे कि किसी जिस्म का पोशाक से रिश्ता