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मुश्किल हो रहा है / संतोष श्रीवास्तव

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कितनी अच्छी लगती थीं
खिडकी से दिखती बरसती बूँदें
हाथ में कॉफी का
प्याला होता था होठों पर कोई गीत अब डराती है बरसात खिडकी खुलती ही नहीं
बरसात भर घर भी सजा धजा
हर वक्त रहता है कुछ बिखरता ही नहीं सख्त चिढ थी तुम्हे बिखराव से मगर फिर भी
बिखर ही जाता था सब कुछ समेटते सजाते दिन कम पड जाता था तुम्हारी फरमाइश पकाते रसोई में खपते रहते थे सुबह शाम अब सूनी रहती है रसोई
छौंक, उबाल, सुगन्ध से
बार बार बजती दरवाज़े की घंटी खुलते दरवाज़े
अब खामोश हैं तुम्हारे वक्त की लगी तोरन भी जहाँ की तहाँ सूख गई है
तब नींदें रात को
तरसती थीं
अब रात नींद को
तरसती है मुश्किल हो रहा है जीना इस सूने घर में तुम बिन