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मुश्ताक़ है उश्शाक़ तेरी बाँकी अदा के / वली दक्कनी

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मुश्‍ताक़ है उश्‍शाक़ तेरी बाँकी अदा के
ज़ख़्मी है महबाँ तेरी शमशीर-ए-जफ़ा के

हर पेच में चीरे के तिरे लिपटे हैं आशिक़
आलम के दिलाँ बंद हैं तुझ बंद-ए-क़बा के

लरज़ाँ हैं तिरे दस्‍त अगे पंजा-ए-ख़ुर्शीद
तुझ हुस्‍न अगे मात मलायक हैं समा के

तुझ ज़ुल्‍फ़ के हल्‍के में है दिल बंद 'वली' का
टुक मेहर करो हाल उपर बे सर-ओ-पा के

तनहा न 'वली' जग मिनीं लिखता है तिरे वस्‍फ़
दफ़्तर लिखा आलम ने तिरी मदह-ओ-सना के