मुसलसल रंजो-ग़म सहने का ख़ूगर जो हुआ यारो
ख़ुशी दो लम्हों की देकर उसे बेमौत मत मारो
मेरी राहों मे आकर क्यों मेरे पाँवो में चुभते हो
मुहाफ़िज़ बनके फूलों के चमन में तुम खिलो यारो
नहीं इस जुर्म की कोई ज़मानत होते देखी है
असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ और मुहब्बत के गिरफ़तारो
न अब वो मैक़दे साक़ी-ओ-पैमाना उधर होंगे
जहाँ तुम शाम होते ही चले जाते थे मैख़्वारो
रखा क्या है अज़ीयत के सिवा इस गोशा-ए-दिल में
कहाँ तुम आ गए हो ऐशो-इश्रत के तलबगारो