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मुसल्सल शक्ल रिश्तों की बदलती जा रही है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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मुसल्सल शक्ल रिश्तों की बदलती जा रही है
लिपटती जो दिलों से बेल सूखी जा रही है।
इधर पानी बिना हैं दुधमुँहों के होंठ सूखे
उधर वो ख़ूबसूरत घास सींची जा रही है।
बराबर लुट रही है आबरू अब दिन दहाड़े
प्रशासन की तरफ से आंख मूँदी जा रही है।
कहीं है सड़ रहा खाना, कहीं रोटी की ख़ातिर
कभी अस्मत, कभी औलाद बेची जा रही है।
बना कर धर्म के आधार पर ये योजनाएं
दिलों के दरमियाँ दीवार खींची जा रही है।
न पेंशन बंध सकी, रिश्वत बिना, दस माह बीते
अलग से एरियर की घूस मांगी जा रही है।
ज़माना भूल बैठा है, किसे कहते भलाई
नज़र 'विश्वास' कितनी तंग होती जा रही है।