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मुसाफ़िर हूँ मग़र कोई सफ़र अच्छा नहीं लगता / देवेश दीक्षित 'देव'

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मुसाफ़िर हूँ मग़र कोई सफ़र अच्छा नहीं लगता
तुम्हारे बिन मुझे अपना ये घर अच्छा नहीं लगता

दुपहरी जेठ की अच्छी तुम्हारे साथ लगती थी
तुम्हारे बाद से कोई पहर अच्छा नहीं लगता

हमारा हौसला देखो ये आँखे नम नहीं होतीं
बिछड़कर तुमसे जीने में मग़र अच्छा नहीं लगता

मेरी महफ़िल के साथी गर्दिशों में क्यों मिलें मुझसे
किसी को भी यहाँ तन्हा शज़र अच्छा नहीं लगता

तिरंगा क्यों जलाते हो,अरे! लाहौर बस जाओ
तुम्हें कश्मीर में रहना अगर अच्छा नहीं लगता