भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुसाफ़िर / विष्णु नागर
Kavita Kosh से
मैं हूँ मुसाफ़िर
चार बार आऊंगा
चार बार जाऊंगा
शुक्र की सुबह आया हूँ
आज की रात चला जाऊंगा
मुसाफ़िर से कहो, बैठ
तो क्या बैठेगा
कहो, चाय पी
तो पानी पी कर जायेगा
कहो, बता अपना हाल
तो तम्बाखू मसलने बैठ जायेगा
मुसाफ़िर से कहो
तू बैठता नहीं
तू चाय नहीं पीता
तू बात नहीं करता
तो जा देख दूसरी जगह
यह मुसाफ़िरखाना नहीं
यह है गृहस्थ का घर
इन्हीं बातों पर
मुसाफ़िर को गुस्सा नहीं आता
यही बातें उसे प्यारी लगती हैं
यही बातें उसे यहाँ ले आती हैं
यही बातें उसे
बीमार पत्नी के मरने पर
रोने देती हैं