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मुस्कान ही मुस्कान, / गुलाब खंडेलवाल

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मुस्कान ही मुस्कान,
परिचित भी चिर-अपरिचित,
अनुभूत भी चिर अजान.
वन, नदी, कछार,
चाँदनी में सभी एकाकार.
कहाँ वे नयन,
नासिका, कपोल, भ्रू-रेखा!
मैंने तो तुम्हारी मुस्कान के सिवा
कुछ भी और नहीं देखा.