भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुस्कुराते थे कभी जो तेरे होंटों की तरह / सुरेश चन्द्र शौक़
Kavita Kosh से
मुस्कुराते थे कभी जो तेरे होंटों की तरह
अब सुलगते हैं वही गुल मेरे ज़ख़्मों की त्रह
कुछ सरोकार ज़माने से न कुछ ख़ुद से ग़रज़
ज़िन्दगी आजकल अपनी है फ़क़ीरों की तरह
हम भी शैदा हैं तिरे हम भी हैं मुश्ताक़ तिरे
ज़िन्दगी हम से भी पेश आ कभी अपनों की तरह
दिल तो क्या जान भी हम तुझ पे लुटा देते , मगर
तूने चाहा न हमें चाहने वालों की तरह
लौ लगाई थी कभी हमने किसी से ऐ ‘शौक़’
उम्र भर जलते रहे शब के चिराग़ों की तरह.
शैदा= मुग्ध; मुश्ताक़=अभिलाषी; शब=रात