भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें / सोनरूपा विशाल
Kavita Kosh से
रोक रक्खी भावनाओं को बहा लें
मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें
चित्र अनदेखा सा इक उभरा हुआ है
रौशनी का हर क़दम ठहरा हुआ है
सब हुलासें सब मिठासें गुम गयी हैं
मन का चेहरा आजकल उतरा हुआ है
दूधिया एकांत का उबटन लगा लें
मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें
ख़ुद को ख़ुद की ग़लतियों पर डाँट लें हम
बस हरापन और सूखा छाँट लें हम
अपनी बाँहों में सिमट आने दें ख़ुद को
एक दूजे को बराबर बाँट लें हम
अनछुए सपनों की फिर गृहस्थी बसा लें
मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें
डर बहुत पक्का है घर कच्चा अगर है
नींद की फसलों पे आँधी का कहर है
पार पाना पार जाने से है मुमकिन
अन्यथा मुश्किल भरा सारा सफ़र है
पर्वती बेचैनियों को हम ढहा लें
मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें