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मुस्टंडा और बच्चा / शुभा
Kavita Kosh से
भाषा के अन्दर बहुत सी बातें
सबने मिलकर बनाई होती हैं
इसलिए भाषा बहुत समय एक विश्वास की तरह चलती है
जैसे हम अगर कहें बच्चा
तो सभी समझते हैं, हाँ बच्चा
लेकिन बच्चे की जगह बैठा होता है एक परजीवी
एक तानाशाह
फिर भी हम कहते रहते हैं-- बच्चा! ओहो बच्चा!
और पूरा देश मुस्टंडों से भर जाता है
किसी उजड़े हुए बूढे में
किसी ठगी गई औरत में
किसी गूंगे में जैसे किसी स्मृति में
छिपकर जान बचाता है बच्चा
अब मुस्टंडा भी है और बच्चा भी है
इन्हें अलग-अलग पहचानने वाला भी है
भाषा अब भी है विश्वास की तरह अकारथ