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मुहब्बत का कभी इज़हार करना ही नहीं आया / राजीव भरोल 'राज़'

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मुहब्बत का कभी इज़हार करना ही नहीं आया,
मेरी कश्ती को दरिया पार करना ही नहीं आया.

जिसे जो चाहिए था तोड़ कर वो ले गया उनसे,
दरख्तों को कभी इनकार करना ही नहीं आया.

हमारे दोस्तों ने हाथ में खंजर थमाया भी,
मगर दुश्मन पे हमको वार करना ही नहीं आया.

इधर नज़रें मिलीं और तुम उधर दिल हार भी बैठे,
मेरी जाँ तुमको आँखें चार करना ही नहीं आया.

मैं दुनिया ही का हो कर रह गया होता मगर इसको,
मुहब्बत से कभी इसरार करना ही नहीं आया.