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मुहब्बत की गली से हम जहाँ होकर निकल आये / चित्रांश खरे

मुहब्बत की गली से हम जहाँ होकर निकल आये
ग़ज़ल कहने के तब से खुद ब खुद मंज़र निकल आये

हमारे हाल पर कोई भी होता जी नही पाता
ग़ज़ल ने हाथ जब पकड़ा तो हम बचकर निकल आये

ये सरकारी महल भी किस कदर कच्चे निकलते है
ज़रा बारिश हुई बुनियाद के पत्थर निकल आये

सिफारिस के बिना जब भी चले हम हसरतें लेकर
हुई जब शाम तो मायूस अपने घर निकल आये

ज़रा सी देर हमने नर्म लहजा किया अपना
हमारे दुश्मनों के कैसे-कैसे पर निकल आये