भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुहब्बत में इबादत का यूँ मौक़ा ढूँढ लेते हैं / अभिनव अरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुहब्बत में इबादत का यूँ मौक़ा ढूँढ लेते हैं
हर एक चेहरे में हम तेरा ही चेहरा ढूँढ लेते हैं

फ़कीरों के लिए क्या भेद मंदिर और मस्जिद में,
ख़ुदा से गुफ़्तगू करने का ज़रिया ढूँढ लेते हैं

धरी रह जाती हैं वाइज़ की बातें घर के बाहर ही,
खिलौने आपके जीवन में रस्ता ढूँढ लेते हैं

कई लोगों को लोगों की ज़ुबां अच्छी नहीं लगती,
वो अपने वास्ते पिंजरे का तोता ढूँढ लेते हैं

मलंगों को मुहूरत की नहीं चिंता हुआ करती,
इबादत के लिए कोई भी लम्हा ढूँढ लेते हैं

तपे कुंदन सरीखे हैं नगीनों की परख हमको,
चले बाज़ार को जाएँ तो सौदा ढूँढ लेते हैं

करम तेरा हैं जिनपर वो ज़माने की हर एक शय में,
तेरा ही नूर और तेरा ही जलवा ढूँढ लेते हैं

उठाये सच का परचम जो चला करते सुबह घर से,
शहर की भीड़ में भी उनको मौला ढूँढ लेते हैं