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मुहावरे मे नही / मुकेश प्रत्यूष

1.
मुहावरे मे नहीं, कहता हूं सच -
अंधा हूं, रहते आंख

दृष्टि है न दूर न निकट की

लपकता हूं हुलस कर
ठिठक जाता है कोई एक
खेल जाती है मुस्कान चेहरे पर बाकी के

कर रहा हूं अनदेखी सोचता है कोई एक परिचित
क्या मालूम उसे
सीमा डेढ़ फीट की
जानने तक सच रहता है फूला मुंह

क्या करुं
किससे कहूं
पकडूं पांव कौन

हो हक मुझे भी देखने का संसार
और रचने का भी.

2.
धूंध मे नही -
खुली धूप मे नही दिख रहे हाथो को हाथ

कैसे दिखे लकीरे
और उभरे संकेत
करते पूरा वर्ष पचास
आया मैं मोड़ पर किस

दिखते है सब तरफ अंधेरे
अंधेरे से अंधेरे की यात्रा का कोई मतलब तो हो

3.
जानता हूं
बंद सुरंग के मुहाने से होती है एक नई शुरुआत

लेकिन मालूम तो हो मुहाना कहां है

भ्रमाने के लिए तो छोडे़ जा सकते है
टटोल कर भटकते हुए कदमो को निशान

सोचता हूं
मिटा दू अपने ही हाथो अपने ही पैरो को
कोई और भटके ढूंढत़े राह
और भोगे सजा गलती की मेरी
अच्छा है इससे तो पंथहीन हो सफर
चले पैर उतनी दूर जितनी बन सके राह

4.
डर लगता है
चलते हुए सडक़ के किनारे
होता है बीचो-बीच खडे़ होने का अहसास
रौदा जाऊंगा कब
मंजिल के बदले यह तय करने मे ही बीता जाता है समय
ठठस कर खडा़ हो गया हूं जहां का तहां
कहने की आदत नही
किससे कहूं - जाना हूं मुझे भी कुछ दूर

5.
नहीं दिखने की सजा भुगत रहे हैं सब
अक्षर को काट रहें हैं अक्षर
रौदा रहे है शब्द-शब्द से
भलाई समझते है ब्रह्म होने मे नदारत
आसान होता है क्या -
चलाना पकड कर ऊंगली ?

6.
दिखता नहीं जब आईने में साफ-साफ चेहरा अपना ही
पड़ता है तलाशना किसी को लगा दे आकर
टुथब्रश पर टुथपेस्ट
बता दे समय
देखकर मेरे हाथों मेें बंधी घड़ी
बता दे पढ़कर
दवा का नाम
तो कैसे कहूं - होता है सत्य ही देखा आंखों का.

7.
नहीं हैं आंखें ही सब कुछ
किये जा सकते हैं और भी कई कम बिना देखे संसार
कहते हैं बार-बार अरुण कमल
बंधाते हुए ढाढ़स
जाती है भर्राई - आवाज