मुह बना मिल / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

आग पानी में लगाए जा रही ।
रूप् का परचम उठाए जा रही ।

व्यग्र है क्षिति-व्योम, लेकिन यह निशा
तारकों को है हँसाए जा रही ।

अलसगमना सभ्यता अपनी हुई,
है निराशा को बढाये जा रही ।

लाज पर पहरा न कोई रह गया,
नग्नता है पर फुलाये जा रही ।

मुँह बना मिल चिमनियाँ सिगरेट हैं,
जिन्दगी धूमिल बनाये जा रही ।

घोर ताण्डव का रहा आतंक है,
धरा निज आँसू गिराये जा रही ।

होड़ भौतिक-प्रगति चूहा दौड़ है
अर्थ लिप्सा स्नेह खाये जा रही ।

जिन्दगी आलस्य की दासी हुई,
स्वास्थ्य-धन अपना लुटाये जा रही ।

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