मूंद नैनों को / रेनू द्विवेदी
मूंद नैनों को जब मैं हुई नींद में,
मन की देहरी पर वह मुस्कुराने लगे।
रातरानी महकने लगी हर तरफ,
जब इशारों में मुझको बुलाने लगे!
इक लहर-सी उठी फिर ह्रदय में मेरे,
मैं विकल और बेसुध-सी होने लगी।
कल्पना पांखुरी-सी झरी इस तरह,
अनगिनत स्वप्न उर में संजोने लगी।
मन की दरिया में चन्दा उतरने लगा,
स्वप्न बन सहचरी झिलमिलाने लगे।
रातरानी महकने---
उनकी चाहत में तनमन पिघलने लगा,
प्रेम में डूबकर मैं बहकने लगी।
प्रिय मिलन की बनी आज साक्षी धरा,
आसमां से दुआ भी बरसने लगी
रूपसी की तरह मन निखरने लगा,
हार बाहों का जब वह सजाने लगे।
रातरानी महकने---
भोर के शोर से नींद टूटी मेरी,
उनकी परछाईया भी न मैं पा सकी।
जब निगाहों ने ढूढ़ा उन्हें दूर तक,
आँख मेरी भरी पर न छलका सकी।
दर्द देने लगे शूल बनकर विरह,
हर घड़ी अब मुझे वह रुलाने लगे।
रातरानी महकने---
इस तरह प्राण पर मेरे' कब्ज़ा किया,
सांसे' भी अब उन्ही की गुलामी करें।
धड़कने नाम लेने लगी रातदिन,
स्वप्न में भी उन्ही को सलामी करें।
जिंदगी ख़ूबसूरत ग़ज़ल हो गई,
जब से' अपना मुझे वह बताने लगे।
रातरानी महकने---