मूक हृदय / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
मूक हृदय के सरल स्नेह का
जहाँ निमंत्रण मिल जता है;
अपने आप वहाँ पर मेरा
कदम स्वयं ही रुक जाता है।
यह मंदिर है यह मस्जिद है,
यह गिरिजाघर, यह गुरुद्वारा;
इन कृत्रिम सीमाओं में बँट
भटक रहा है जग यह सारा।
मानव की प्रतिमा का प्रति दिन
पूजन जहाँ किया जाता है;
अपने आप वहीं पर मेरा
पूजा का घर बन जाता है॥1॥
अडिग हिमालय-स जिसका मन,
मस्तक शुभ्र शिखर-सा उज्ज्वल;
जिसके अंतर से भावों की
गंगा-यमुना बहतीं अविरल।
जो छाती में आग छिपाये
शांत सिन्धु-सा लहराता है;
पास पहुँचते ही उसके यह
सीस स्वयं ही झुक जाता है॥2॥
भरा हुआ जिसके नयनों में
मेरे ही नयनों का पानी;
है जिसने अपने अधरों से
मेरी मुसकाहट पहचानी।
स्वर में मेरी राग भरे जो
गाता गीत चला आता है;
उसे दूर से ही सुन, मेरा
द्वार स्वयं ही खुल जाता है॥3॥
है मशाल से सीखा मैंने
सिर पर जलती आग उठाना;
औ’ सितार से सीखा सह-सह
चोटें, मीठी राग सुनाना।
लेकिन सहन-शक्ति की सीमा
पार दर्द जब कर जाता है;
अपने आप वहाँ पर मेरा
गीत स्वयं ही रुक जाता है॥4॥
30.6.61