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मून खोलणो पड़ सी / ओम पुरोहित कागद

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मा
एकली नी कर सकै
आपरी संतान रो
पालण पोषण:
कीं तो
बाप रो भी
फर्ज हुवै।
म्हारी जामण
बता !
बो कठै है
जको म्हानै
थारी कूख मांय
छोड‘र तनै
वियागण बणाय‘र
निरवाळो होयोड़ो फिरै।
थारै
अंतस री बळत
लाय बण‘र
उण दगैबाज रै
अणखावणै मुंडै नै
क्यूं नी झुरड़ लेवै?
तू मा है
रजथानी नार है
इण खातर मून है
अर
धार राख्या है
अखूट निगोट
निर्जळा बरत ।
पण मा !
बरतां रै ताण
नीं आया करै
दगा दकवणिया बाप
अब तनै
बरत तोड़ना पड़सी
मून खोलणा पड़सी ।
थारा जाया म्हे
कैर बोअटी फोग खींप
बूई अर रोहिड़ा
तनतै उनाळै
बिनां गाभां
थारै
तर-तर
निबळै पड़तै
डील स्यूं
चिप‘र अब
घणा दिन
नी तोड़ सकां
अर तूं भी
अब
म्हारी तर-तर बधती
भूख तिस्स नै
खाली पड़तै हांचळां मांय
किता-क दिन
लिंया फिर सी ?
उतराधै स्यूं
हळ-हळ करतो
बैवतो आवै
खाथा-खाथा
डग भरतो
म्हारो दगैबाज बाप
इण खातर
अब तनै
कोई तिरिया चरित
रचणो पड़ सी।
का कोई लूंठो सो
ब्रह्य मंतर जप‘र
ब्रह्यास्तर चकणो पड़सी !