मूर्तियाँ / सुभाष राय
मूर्तियाँ बोलतीं नहीं, विचार नहीं करतीं
चाहे कितनी भी ख़तरनाक परिस्थिति हो
वे खड़ी रहतीं हैं चुपचाप
और इस तरह याद दिलातीं हैं
कि मूर्ति में बदल जाना
कितना अप्रासंगिक हो जाना है
यह भी कि तुम्हें मूर्तियों से परे जाना है
मूर्तियाँ नहीं होतीं, तब भी होतीं हैं
लकड़ियों में, मिट्टी में, रेत में, बर्फ़ और पहाड़ में
बाहर जितनी मूर्तियाँ होती हैं
उससे कई गुना ज़्यादा होतीं हैं हमारे भीतर
स्मृति में दबे शब्दों में, दृश्यों में, अधूरे सपनों में
अपने समय में ठहरी हुईं, सड़ती, बजबजाती हुई
जब विचार कमज़ोर पड़ने लगते हैं
मूर्तियाँ खड़ी होने लगती हैं
एक मूर्ति गढ़ी जाती है और समय बढ़ जाता है
एक नए विचार की तलाश में
हिम्मत हो तो तोड़ दो भीतर की सारी मूर्तियाँ
मूर्तियों के भीतर की मूर्तियाँ
मुझे यक़ीन है की वे टूटेंगी
तो चमकेगा एक नया आकाश
फैलेगा समूचे जगत को भीतर तक
भर देने वाला उजास