मूर्ति विसर्जन / ऋषभ देव शर्मा
आज फिर
वेला विसर्जन की
उपस्थित हो गई;
सर्जना
ऊँचे शिखर पर
सो गई!
है अमर देवत्व
लेकिन
मूर्तियाँ भंगुर,
विनश्वर।
मूर्तियों में
कब बँधा है
सत्य शाश्वत नित्य भास्वर।
है नहीं सीमा कि जिसकी
आँक दी हमने हदें,
और
रूपातीत को भी
रूप दे अंकित किया,
भर दिया गुण में
अगुण को;
यह कला की पूर्णता है।
कल्पना
सच में ढली यों,
कल्पना खुद खो गई!
आदमी की उँगलियों ने
देवता निर्मित किया,
यों
सृजन सुख पा लिया।
आँख से देखा
उसे जो
सिर्फ मन से दीखता था,
दृष्टि सार्थक हो गई।
छू लिया,
पूजा उसे,
अपना लिया
संबंध देकर,
शब्द अपने भर दिए
भर मुट्ठियों में शून्य को।
प्राणमय विग्रह हुआ
औ’ प्रतिष्ठा हो गई।
हर गली
हर गाँव
चौराहे सभी,
हो गए
गण और गणपति
रागमय।
पा लिया वरदान,
पाया प्रेम
औ’ विश्वास भी।
पर बोध पाना शेष था!
बोध यह-
है मूर्ति मिथ्या,
मूर्ति का सर्जन हमारा दंभ
औ’ विसर्जन भ्रम।
सत्य है अस्तित्व केवल
मूर्ति से पहले रहा जो,
मूर्ति में जो था प्रतिष्ठित,
बाद में भी जो रहेगा।
सत्य केवल काल
जल की धार सा
बहता निरंतर।
काल के जल में निमज्जित
मूर्तियाँ
संबोधि की संभावनाएँ
बो गईं !