मृग, मयुर आ कोकिल मन हे ! / ब्रजकिशोर वर्मा 'मणिपद्म'
अन्तरालक सौन्दर्यक
सोनाघाटी में
गुंगुआइत-फेनाइत
झक-झक प्रवहमान
काल-सरिताक तट पर
कुसुमित-सुरभित
काननमे,
अल्हरैत-मल्हरैत
हे हमर मृग मन !
अपने अलख नाभिसँ
उठैत मधुगन्धसँ
मद्मातल
क्षणे-क्षणे उन्मन होइत
ककरा प्रतीक्षामे
उद्ग्रीव भेल
उदित चान दिस
निहार’ लगैत छी ?
बाबा पोखरिक
भसिआयल दर्पण पर
जड़ल पद्मराग मणि जकाँ
प्रतिबिम्बत भ’ उठैत छै
तखन सहस-सहस
अरूनाएल कमल
मकरन्दें चप-चप
पीत कोष पर
मधुकरक गान सुनि
मज्जरक महमहीसँ
गछारल डारि पर बैसल
एकटा अव्यक्त
मधुर टीसें अकुलायल
हे हमर कोकिल-मन !
कोन अनजान प्रियकें
बजब’ ले
कुहक’ लगैत छी ?
हरित नीलाभ
मानस क्षितिज पर लहरा उठै छै’ जखन
घनश्यामक
पीत विजुरि पर
आ बाजि उठै छै
कोनो महारासक मृदंग
गुड़म-गुड़म डुम
उमड़ि अबैत छै नभ-कालिन्दी
तहि क्षणमे
हे हमर मन-मयुर !
हेरि-हेरि आगत प्रिय दर्शनकें
कोन अज्ञात उल्लासमे भरि
पसरि अपन छविमय पाँखि
नाचए लगैत छी
से हे हमर
मृग, मयुर आ कोकिल मन
ई कोन अज्ञात, अनन्त आ अव्यक्त
सौरभ, ताल गति आ तान
अपनामे भरिक’
ओहि पर लट्टो भेल
ओकरा व्यक्त करक प्रयासमें
जीवन भरि
अयस्यांत
घुरमैत
रहलहुँ अछि।