मृग-तृष्णा / शशि सहगल
दिल्ली भारत की राजधानी
ऐतिहासिक खंडहरों
भव्य भवनों से सजी
पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र
इसी दिल्ली को मुद्रिका सा घेरता है
गंदा नाला
कभी बहुत भरा कभी कीचड़ से लथपथ
नेताओं के वोट-बैंक सी
पसर गयी हैं झुग्गियाँ नाले के साथ साथ
इन झुग्गियों में
बेचारे गरीब ही नहीं रहते
स्याह-सफेद सभी तरह का धंधा
चलता है बिना छिपाये।
वहीं उस दिन
तेरह साल की सीमा को
बेच दिया था उसकी माँ ने
मात्र एक सौ रुपयों में
मकान के किराये की ऐवज़ में
मात्र तेरह साल की उम्र में
चल दी थी सीमा
एक अजनबी राह पर
नयी हरियाली की तलाश में।
वय-संधि की दहलीज़
नहीं पहचानती अपनी सीमाओं को
तभी सीमा ने पाल लिये
कुछ सतरंगी सपने
और सूंघना चाहा
जाने वाले देश का खुशगवार मौसम
उसका भोलापन
जैसे वरदान बन गया था
तभी तो
लम्बी यात्राओं के दौरान
नहीं सहमी वह
शेख़ की मुलायम जुबान में छिपी क्रूरता
समझ भी कैसे पाती बेचारी।
माँ की याद आयेगी ज़रूर उसे
अनाथ नहीं है वह
माँ के देश के आनी वाली हवाओं से
पूछेगी माँ का हाल
सुनायेगी अपना दुःख-सुख
लेकिन
हवाओं को नहीं व्यापता दुख-दर्द
ढोती हैं वे केवल चीत्कारों को
अपने कंधों पर उठाये उठाये
अच्छा है, नहीं जानती यह सब
और सूंघती है
दिशाओं में अपना परिचय।