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मृग तृषा / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

फूल खिलते ही
मुरझते से लगे हैं
हो गयीं गुम
खुशबुएँ जैसे कली में!

हम भटकते
खोजते
फिरते रहे हैं
पर्वतों की
गगन की ऊँचाइयों में
शोर में
आवाज़ अपनी घोलते हम
बहुत उलझे
भीड़ की तन्हाइयों में
है दिशा भ्रम
राज पंथों पर शहर के
दहशतें ही दहशतें
अन्धी गली में।
थाम कर उँगली
चली नदियाँ कभी जो
मरुथलों में छोड़कर
चलती बनी है
पनघटों की
इन छलकती गागरों में
तृप्ति से
जाने कहाँ की दुश्मनी है
डुबकियाँ
हरघाट पर कितनी लगायीं
मृगतृषा
भरते रहे गंगाजली में।

लहर ही
अब तक खड़े गिनते रहे हैं
मुट्ठियों में
शंख, कुछ घोंघे बटोरे
मोतियों तक
डूब कर पहुँचे नहीं हम
याचना में
रह गए खाली कटोरे
जी चुराकर
कर्म की दृढ़ साधना से
मुक्ति की है कामना
पूज्यस्थली में!