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मृग श्राप / कुमार विमलेन्दु सिंह

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हिरणी- यह अरण्य की हरीतिमा
यह सुखद सा एकान्त
यह उत्तेजित करती गंध धरा की
और उज्ज्वल यह निशान्त
क्या कहते हो तुम प्रिये?
क्या यह नहीं हमारा सौभाग्य है?
इसी वन से परे
क्या नहीं नृपों का राज्य है?

हिरण- सत्य कहती हो प्रेयसी
उन्मुक्त्त हमारा संसार है
ना मनुजों का सा द्वेष है
ना भावों का व्यापार है

हिरणी- इसी वन के उस छोर पर
बसा हुआ है एक नगर
व्यवहार वहाँ मनुष्यों का
द्वेष मुक्त्त ही दिखता है
ना क्रय होता है किसी भाव का
ना भाव कोई बिकता है

हिरण- तुम निश्छल हो प्रेयसी
अत: नहीं तुम जानती
रहा नहीं नर कभी द्वेष -मुक्त्त
धरित्री भी है मानती

हिरणी- स्वीकार्य नहीं मुझे है
यह सिद्ध सत्य तुम्हारा
नर ही द्वेष मुक्त्त है
वह नगर ही सारा

हिरण- स्वप्र-लोक क्या चली गयी थी?
और अब सहसा ही आई हो
चित्र वहीं के भर कर दृगों में
इस धरा पर लाई हो
तुम्हारे उर का प्रेम है यह
जो विश्व दिखता तुमको सरल है
हे प्रिये! यह मृत्यु-लोक है
यहाँ परिवर्तन होता प्रतिपल है

हिरणी- नहीं जानती मैं प्रियवर
क्या होता यह परिवर्तन है
प्रेम तुम्हारा था संम्पति मेरी
आज भी वह मेरा धन है

हिरण- पुलकित हुआ ह्रदय मेरा
प्रणय शब्द तुम्हारे सुनकर
पर इसी कथन-श्रवण में हमारे
डूब रहेगा नभ में दिनकर

हिरणी- विभावरी जब बीत चलेगी
बिखरेंगे जब स्वर्णिम कर
पुन: यहीं हम आएँगे
क्रीड़ा दिवस भर करेंगे
कुछ मिलन गीत भी गाएँगे

हिरण- उत्सुक हूँ मैं तुमसे सुनकर
उस नगर का विवरण
सौहार्द्र मनुजों के मध्य जहाँ है
और प्रेम है प्रतिक्षण
क्यों न चलें वहीं हम दोनों
और वहीं पर गान करें
क्या जाने कोई यशस्वी
हम मृगों का भी मान करे?

हिरणी- हाँ! निश्चित हम जाएँगे
और मिलन-गीत भी गाएँगे
यदि स्नेह से खुल जाएगा
किसी भवन का वातायन
जान लोगे तुम भी प्रियवर!
प्रेम, मनुजों का भी है धन


द्वितीय भाग

दशरथ का विस्तृत प्रासाद और उसमें क्रीडा करते प्रभु राम बार-बार वातायन की ओर जाते हैं और हर्षित होकर किलकारी करते हुए यहाँ-वहाँ दौड़ रहे हैं।

दशरथ (सेवकों से)- विख्यात रहा जो देवों में भी
उसी शौर्य का खण्ड है राम
सुरक्षित रही धरा जिससे
उस धैर्य का अवलम्ब है राम
क्रीड़ा सुलभ रहे राम की
सेवकों! यह ध्यान रहे
ले आओ, प्रबंध कराओ
जब, जितना, जो राम कहे


सेवक (दशरथ से)- क्रीड़ारत ही रहेंगे राम
कृपया आप निश्चिंत रहें
प्रबंध कराएँगे हम सब कुछ का
जब, जितना, जो राम कहे


कौशल्या (सेवकों से)- पुलकित हो जाता है मन मेरा
हँसता है जब पुत्र मेरा
मुँख पर इसके बना रहे
यह अधरों का प्रसाद सदा

रुक कर, गिर कर, वह चलता है जब
चलता है यह जीवन मेरा
लगता है जब उर से मेरे
सुरभित होता है मन मेरा

कुछ भी हो जाए पर यह ध्यान रहे
पुत्र मेरा न कष्ट सहे
शब्द नहीं है पास इसके
  अत: पूर्ति हो अविलम्ब उसकी
जो यह संकेतों में भी कहे

सेवक (कौशल्या से)- सामर्थ्य में जितना होगा
उससे परे भी जाएँगे
संकेत मात्र पर ही राम के
हम सब कुछ ले आएँगे
 

तृतीय भाग

हिरण- हिरणी दशरथ के प्रासाद के पास आते हैं| हिरणी बताती है कि यही उस प्रेमपूर्ण नगर के राजा का महल है

हिरण - कैसा विस्तृत प्रासाद है यह
 विश्वकर्मा का उन्माद है यह
 सौन्दर्य तो देखो इस भवन का
 अलौकिक! निर्विवाद है यह

हिरणी - मोहित हुए जाते हो कैसे
 बस देखकर एक भवन
 चकित हो जाओगे प्रियवर !
 देख यहाँ मनुजों का मन

हिरण - प्रस्तर से ही रच दिया है
 मनुजों ने यह विशाल भवन
 कृति विस्तृत है जब इतनी
 कितना वृहद् होगा मन!

हिरणी- किन्तु, माप कहाँ मन को देती है?
 कृति किसी सजीव की
स्वार्थ सृष्टि ही रच देते हैं
यही मनुष्य, अजीब सी

हिरणी- पुन: उसी भाव को क्यों
निज उर में तुम घोल रहे हो?
बंद वहीं पड़े है जो गीत
उन्हें नहीं क्यों खोल रहे हो?

चतुर्थ भाग

(हिरण और हिरणी बहुत देर तक गाते है पर खिड़की नहीं खुलती, जब हिरण को अपने जीतने का आभास होने लगता है तभी राम वातायन पर दिखते हैं)

हिरण- सारे स्वर अब मुक्त्त हो चुके
कंठ चाहता है विश्राम
वातायन तो एक ना खुला
आओ, अब लौट चलें अविराम

हिरणी- स्थिर करो यह चंचल मन
औ’ प्रतीक्षा का लो आनन्द
टीके रहे जो क्षेत्र में
कीर्ति उन्हीं की बनी अखण्ड

हिरण- रण-क्षेत्र नहीं है यह प्रिये!
औ’ कीर्ति की चाह नहीं
आह्वान प्रेम का है यह तो
योद्धाओं की कठिन राह नहीं

हिरणी- रण में शत्रु प्रत्यक्ष होता है
औ’ प्रेम में निज-मन में
युद्ध की विजय समय के अधीन है
प्रेम की विजय है हर क्षण में
चाहे न चलते हों प्रियवर
प्रेम-संघर्ष में कोई शर
पर, स्वयं से लड़ पाना भी
है नहीं कोई सरल समर

हिरण- स्वयं से ही संघर्ष हो जिसमें
भावों का कैसे उत्कर्ष हो उसमें
चाहों तो प्रेम कहो इसे मगर
है यह सब ईप्साएँ प्रखर

हिरणी- वाद-विवाद अब छोड़ो प्रियवर!
औ’ देखो वह छवि सुन्दर
आह! कैसा प्यारा बालक है वह
क्या सुन्दर चक्षु, क्या कोमल अधर

हिरण- निश्चय ही सत्य कहा तुमने
साधारण यह छवि नहीं
कठिन है विश्वास करना
यह बालक है, रवि नहीं
कल-कल बहते झरने जैसी
हँसी इसकी लगती है
औ’ इसके धवल शरीर पर
स्वर्ण-माला भी जँचती है

हिरणी- एक सुखद सी शीतलता
इसकी दृष्टि से मिलती है
और वात्सल्य-पुष्पों की श्रुंखला
मेरे ह्रदय में खिलती है

(अचानक हिरण गम्भीर हो जाता है और हिरणी को ध्यानपूर्वक देखने लगता है और उसकी आँखों में अश्रु भर आते है। हिरणी लगातार राम को ही देखती रहती है और अब उसका ध्यान हिरण की और जाता है तो वह आश्चर्यचकित होकर पूछती है।)

हिरणी- भावावेश समझूँ इसे
या अविरल प्रेम की धाराएँ
चिंता छलक रही है आँखों से
या भविष्य की आशाएँ

हिरण- कहीं सुना था मैंने प्रिये!
सुखद जब जीवन जान पड़ता हैं
आगामी स्थितियाँ विकट होती है
औ’ असम्भव, अंत जहाँ लगता है
मृत्यु वहीं निकट होती है

रोक सको तो रोक लो प्रिये!
यह सुरभित आवरण
और ये स्वर्णिम क्षण
पता नहीं कल मन बदल जाए
या रहे ही नहीं यह तन

तारक-मणियों की दीप्ति
औ’ मयंक की शीतलता
सब कुछ भर लो दृष्टि में
यह संध्या आगामी प्रभात
ये भीगे तृण, वह जल-प्रपात
कुछ छूट न जाए सृष्टि में

हिरणी- क्षणों को तो रोक न पाऊँगी
अब तो प्रेम-पाश फैलाऊँगी
तुम यह आकाश
मैं, मेरे श्वास
यह रात्री, वह प्रभात
सब है मेरी दृष्टि में
अब क्या चाहूँ मैं सृष्टि से

(हिरण और हिरणी को स्थिर और मंद देखकर बालक राम दुखी हो जाते हैं और उन्हें गाता न देखकर रोने लगते हैं। बालक राम लगातार रोते ही जाते हैं, और सेवक जिन्हें कौशल्या और दशरथ का आदेश था कि ‘राम न रोएँ’, राम को मनाने का हर संभव प्रयास करते हैं। राम चुप नहीं होते और वातायन पर खड़े-खड़े, रोते हुए मृगों की ओर इशारा करते हैं। सेवक समझ जाते हैं कि बालक राम मृगों के लिए रो रहे हैं। एक सेवक बाण चलाता है और वह बाण सीधा हिरण को लगता है। हिरण एक चीख के साथ गिर पड़ता है और हिरणी एकदम अवाक खड़ी देखती राह जाती है।)

हिरण- आह! लौट जाओ प्रिये वन की ओर
देख नहीं पाऊँगा मैं भोर
इस सुरभित संध्या कि स्मृतियाँ
मैं साथ लेकर जाऊँगा
वचन देता हूँ तुमको
दृश्य बन स्वन्पों में
औ ध्वनि बन कर्णों में आऊँगा

हिरणी- कैसा आज हुआ यह अनर्थ
दृश्य और श्रुति का अर्थ
मैं नहीं समझ पाऊँगी
अछुण्ण होते हैं भाव, सुना है
पर इन्हें ही छूने
मैं पुनः लौट कर आऊँगी

(हिरण प्राण त्याग देता है और सेवक उसका शव लेने आते हैं। शव के पास खड़े होकर वह कुछ विमर्श करने लगते है।)

सेवक- मृत पड़ा है यह मृग अब तो
अब इससे क्या काम करे?
चलो मृदंग बनाएँ इसके चर्म से
औ निष्प्राण शरीर का भी उपयोग कर
 हम मनुजों का नाम करें

(सेवक मृग-चर्म से मृदंग बनाकर ले आते है और बालक राम को सुनते हैं। राम आह्लादित होकर उछलने-कूदने लगते हैं।)

हिरणी- आह! तुम सचमुच आए

(दूर से मृदंग की आवाज सुनकर)
ध्वनि बन कर मेरे मेरे कर्णो में
हृदय का स्पंदन बढ़ रहा है
औ स्थिरता है चरणों में
पर कब तक ध्वनि यह आएगी
औ' मुझको बहलाएगी
दीप्तियाँ लेकर जैसे ही रात्रि
भास्कर को छुपाएगी
मुझ तक आने वाली सारी ध्वनियाँ
स्वतः ही रुक जाएँगी

(हिरणी यह सोचकर दुखी हो जाती है। क्यूँकि अब संध्या बीतने ही वाली है। मृदंग की ध्वनि भी अब रुक-रुक कर आ रही है। प्रासाद में राम चंचल होकर फिर वातायन पर आते है और स्थिर हिरणी को देखते है। हिरणी इतनी स्थिर होती है कि राम अचानक चंचल से स्थिर हो जाते है और रोने लगते है। सेवको के पूछने पर फिर राम हिरणी की ओर इशारा कर देते है और सेवको में से एक, बाण चलाता है, जो सीधा हिरणी को लगता है।)

हिरणी- (पीड़ा से कराहती हुई)-
हाय! शर ही मिला मुझको भी
   कौन अपराध किया था मैंने
बस प्रेम-दृष्टि डाली थी बालक पर
ऐसा क्या आघात किया था मैंने?

हे बालक! तुम उस दिन रोए
और मेरे प्रियवर निष्प्राण हुए
आज हठ और रुदन से तुम्हारे
पखेरू मेरे भी प्राण हुए
ममत्व से देखा था तुमको
और तुमने विरह दिया
क्षमा किया मैंने तुमको फिर भी
पर आज शेष क्या रह गया?

प्रतिशोध की कामना तो
मन में मेरे न आएगी
मनुष्य का हृदय नहीं है मेरा
सो, वहाँ नहीं रह पाएगी

लेकिन, कर्म का फल तो होता है
औ’ तुम भी उसको पाओगे
स्नेह से भरे जीवन में तुम्हारे
फिर एक मृग आएगा
औ’ जिसे झेल मैं मृत हो रही
वहीं विरह तुम्हें फिर दे जाएगा