भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मृतात्माओं के इस नगर की इस संध्या-बेला में / शहंशाह आलम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सच कहूं तो मृतात्माओं के इस नगर की
इस संध्या-बेला में
वही सब कुछ घटित नहीं हुआ था
पूरी भयावहता और भयानकता लिए
पृथ्वी के प्रेम में घर से निकले
उन वृद्धजनों के साथ
या उन जैसे टहलते हुए
अन्य-अनेक वृद्धों के साथ

चूंकि सच आपको पसंद है अधिक
वे वृद्ध भी निकले थे सच की तस्वीरें
उतारने के लिए ही शायद इस शामियाने में

रास्ते में मिलते छायाकार के झुंडों
वनस्पतियों के दृश्यों समुद्र की हलचलों
पक्षियों की शून्य को भरती हुई आवाज़ों
सांपों की और नेवलों की ठीक उनकी बग़ल से
गुज़रने की सरसराहटों
अथवा निरंतर आते मीठे स्वरों से
मिटती उनकी थकानों
अथवा करोड़ों बरस से अंतरिक्ष और वनों से
उनके बीच के संबंधें से भरा उनका जीवन
आज कहीं पर दिखाई नहीं दे रहा था
न उनके भीतर के शिशु में
न उनके भीतर के इलाक़े में
न उनके भीतर के वितान में
न उनके भीतर के सुंदर बाघ में
न उनके भीतर की बहती हुई नदी में

कहने का तात्पर्य यह है कि
आज जो भी था उनके बाहर या अंदर
पिछले सौ-सौ हज़ार-हज़ार बरसों में नहीं था
इतना अनचाहा इतना अनजाना
जैसे आज संध्या-स्नान करते हुए
उन्होंने महसूसा
उनकी स्मृतियों पर तैनात थे शत्रु असंख्य
राष्ट्रव्यापी हड़ताल पर चले गए थे
बैंक के बाबू
सचिवालय के अधिकारी
पड़ोस के सिपाही
स्कूल के हेडमास्टर
कॉलेज के प्रोफेसर

सांसद, विधायक और मंत्री ख़ुश थे कि
पगार बढ़ाने के लिए कभी ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद
नहीं कहना पड़ा उन्हें
न अभूतपूर्व हड़ताल पर जाना पड़ा कभी
वे जब चाहते अपनी पगार पढ़वा सकते थे
अपने-अपने विचारों को भुलाकर

कहने का तात्पर्य यह है कि
कोई ऐतिहासिक क्षण नहीं दिखाई देता था
उनके जीवन में इन दिनों न उनकी विधि क्रियाओं में
न उनके भादों मास में
न उनके पूस-माघ में

न प्रेम की उक्तियां ही थीं
उनके भीतर के हरे पत्तों की
इस तिथि से उस तिथि तक में उनके साथ

आज वे खड़े थे जहां
पृथ्वी के जिस इलाक़े में
जिस पेड़
जिस छत
जिस शिविर
जिस मलबे
जिस समय और जिस काल के बीच
यदि सब कुछ
यही सब कुछ
सिर्फ़ घटित होता उन्हीं वृद्धजनों के साथ
तो समझते वे कि
यह तो होना ही था उनके साथ
यह हुआ और ऐसा घटा परंतु सबके साथ
स्त्रियों पुरुषों शिशुओं पशुओं पक्षियों
समुद्र की मछलियों
सबके साथ

चाहे मस्जिद वाली गली के सुलेमान मियां हों
चाहे काली मंदिर के पीछे रहने वाले बंगाली दादा हों
चाहे लोकल ट्रेन के यात्री-सहयात्री हों
चाहे पेड़ों के नीचे दिल्लगी कर रहीं लड़कियां हों
अथवा बारिश की प्रतीक्षा कर रहे
बायलोजिकल गार्डेन के जानवरों व दरिद्रजनों
के फोटो उतार रहे फोटोग्राफर
सभी डरे थे सभी सहमे थे
इस रहस्यमयी संध्या-बेला में

यूं कहिए
सभी को डराया गया था
डराए जाने के हर संभव-असंभव तरीक़ों से

ख़ुलासे के तौर पर उनसे बस यही कहा गया था कि
आज़ादी की हीरक-जयंती की तरफ़ बढ़ रहे
सारे साधरणजन डरें बस डरें

वे उनके कथित इस कथन को वैध समझें

वे डरें प्रार्थना करने वाली जगहों से
वे डरें प्राणिशास्त्र से
वे डरें आलोचकों की गुंडई-लफंगई से
वे डरें नायकों-नायिकाओं से
वे डरें अपनी ही महत्त्वाकांक्षाओं से
वे डरें अपनी शिष्टता से विशिष्टता से अपनी ईमानदारी से
वे डरें मुल्जि़म से
मुजरिम से
सटोरिए से
सिपाही से
वे डरें विज्ञापनों से
अर्थशास्त्रियों से
विश्वसुंदरियों से
सूट और टाइयों से वे डरें
ऐसा कहने वालों ने यह सब कहा था
एकदम शहदघुली भाषा में
सबके उत्सव के दिनों में

गर मैं संगीत-शिक्षक होता तो सुनाता संगीत
उनकी इस उदारता और हमारी दासता का
और हमें मारे जाने के
उनके और-और तरीक़ों के बारे में बतलाता
बतलाता उनके
और-और विचारों के बारे में

हमारा मारा जाना तो
शासकों की स्वैच्छिक क्रियाओं में
था शामिल पूरी तरह
यह सब स्वीकारा जाना चाहिए
दुनिया के अंतिम सत्य की तरह

हमारा मारा जाना कितना भी सच हो बड़ा
या उन बूढ़ों को डराया जाना कितना भी सच हो बड़ा
उनकी आत्माओं ने ही बचाया था
उन्हें डरने से और डरकर किसी पेड़ पर
लटक जाने से चमगादड़ों की तरह

पृथ्वी की अंतिम प्रजाति वे वृक्ष
जिन्होंने मालूम नहीं जिया था
कितनी हत्याएं
कितने बंटवारे
कितने दंगे
कितने हादसे
कितने शुभ-अशुभ
कितने एकांत
कितने सन्नाटे
कितनी अमानुषिकताएं
कितने इतिहास
कितनी आदिम प्रजातियां
कितने अनुभव अनूठे

यह अविश्वसनीय नहीं था बिलकुल
बल्कि सौ प्रतिशत सच था

मृतात्माओं के इस नगर की
इस संध्या-बेला में वे वृक्ष
जीवित कर आए थे अपना सारा हरा सारी ख़ुशी
अपने निबंधों संस्मरणों अफसानों
और अपने जीवन की उत्तरगाथाओं में
शासकों का मुंह चिढ़ाते हुए।