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मृत्यु की ताख पर दो बार / प्रतिभा किरण
Kavita Kosh से
1.
आसमान के हलक पर
घुटनों को धँसाकर बैठी है
न जाने कबसे काग़ज़ पर
काँट-छाँट में लगी हुई है
हिसाब है कि ठीक बैठा ही नहीं
बिना रोजनामचे में दर्ज किए
जीवन से कौन सा सौदा कर आई तू
2.
मेरे सिरहाने कोई धूनी तो रख जाओ
कबसे देह उतारे सोई हुई हूँ
मेरी खुली आँखों पर हाथ मत रखना
वरना मेरे बच्चे भूल जायेंगे अपनी भाषा
सोने से पहले एक कविता लिखी थी मैंने
उसके नामकरण के पहले ही उबासी आ गयी
अब उल्टे कदम चलकर
वह मेरी कोख में वापस आ रही है
इस बात के लिए खुली आँखों से शर्मिन्दा हूँ