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मृत्यु के प्रति / विमल राजस्थानी

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कितना ही दबे पाँव चुपके से तुम आओ
क्षीणातिक्षीण पगध्वनि जानी-पहचानी है
है जनम-जनम का प्यारा-सा नाता अपना
तेरी-मेरी पहचान गयी न, पुरानी है
बीजांकुर होते समय भले तुम छिपी रही
पर उस क्षण से ही साथ तुम्हारा रहता है
साँसों की सरगम से तुम जुड़ी रही प्रतिपल
संसार बहुत नादान, जिंदगी कहता है
जीवन तो माया की जंजीरों में जकड़ा
तू मुक्तिदायिनी, शिव-सा औघड़दानी है

जीवन का सतत प्रवाह तुम्ही तो देती हो
तुम ही देती हो प्राण, तुम्हीं हर लेती हो
बचपन, कैशोर्य, जवानी और बुढ़ापा तो-
चारों के चारों तेरी रामकहानी है

जीवन जब डगमग कर गिरने को होता है
आगे बढ़कर तुम बाँहों में भर लेती हो
जीवन के छंदों में जो नव स्वर भरती है
आदर्शों, सिद्धान्तों को भास्वर करती है
अघ से न जोड़ने देती है मन का नाता
जड़-जंगम को मारती, न खुद जो मरती है
स्वागत में बिछे नयन, कवि घोषित करता है
‘है मूर्ख जिन्दगी, मृत्यु सयानी-ज्ञानी है।’