दो घड़ी रुकता हूँ घाट पर
इस स्थिर शान्त जल में
कि उसकी विस्तृत दृष्टि का मौन रहस्य बिम्बित हो शायद!
दो घड़ी रुकता हूँ इस पुरातन अन्धकार में
कहता हूँ, नदी, किसने अपने क्षिप्र हाथों से
तेरी व्यर्थताएँ बीन ली हैं,
शाम के आकाश, अस्त सूर्य और निस्संग हवा के विषण्ण मर्मर से
शीत की संन्यासिनी वन्यभूमि से? क्या तुमने?
उसकी आकाँक्षा के थके पथ से
कौन लौट आया है इस अनूठे अन्धकार में, तुम?
दो घड़ी रुकता हूँ घाट पर
लहरों के अस्फुट कल्लोल में लगाता हूँ कान
अगर इस आधी रात में ठण्डी-ठण्डी सुन्दर हवा में
नदी की गहराई में उसकी रुलाई जाग उठे
जल के शरीर पर हाथ रखता हूँ
कहता हूँ, नदी, तुम्हारी आँखों के कगार पर
इतना अन्धेरा क्यों है
तुम क्या उसकी आँखों का पानी हो!!
मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी