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मृत्यु गीत / 2 / भील

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भील लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

पावो फाटियो ने सुरिमल उगिया रे भँवरा।
पावो फाटियो ने सुरिमल उगिया रे भँवरा॥
जीविता क तो नि दी रोटी रे भँवरा।
जीविता क तो नि दी रोटी रे भँवरा॥
मरिया पाछे बेटो लाड़ु उड़ाया रे भँवरा।
मरिया पाछे बेटो लाड़ु उड़ाया रे भँवरा॥
जीविता क तो बेटो कपड़ा नि पेराया रे भँवरा।
जीविता क तो बेटो कपड़ा नि पेराया रे भँवरा।
मर्या पाछे बेटो मसरू ओढ़ाया रे भँवरा।
मर्या पाछे बेटो मसरू ओढ़ाया रे भँवरा॥
जिवता क तो बहु हिचके नि हिचाड्यो रे भँवरा।
जिवता क तो बहु हिचके नि हिचाड्यो रे भँवरा।
मर्या पाछे बहु हिचके हिचाड़े रे भँवरा।
मर्या पाछे बहु हिचके हिचाड़े रे भँवरा॥
जिवता क तो बेटो कुद्यां नि उँघळायो रे भँवरा।
जिवता क तो बेटो कुद्यां नि उँघळायो रे भँवरा॥
मर्या पाछे बेटो खुब ऊँघळावे रे भँवरा।
मर्या पाछे बेटो खुब ऊँघळावे रे भँवरा॥

महिलाएँ जनसामान्य का शिक्षा देती हैं- हे जीव! प्रभात और सूर्योदय होता है।
जीवित रहते माता-पिता को पुत्र ठीक से भोजन नहीं देता है और नुक्ते में लड्डू
जिमाता है। जीवित रहते हुए पुत्र माता-पिता को ठीक से वस्त्र लाकर नहीं पहनाता
है और मरने के बाद मसरू ओढ़ाता है। जब तक सास-ससुर जीवित रहें, तब तक
बहू ने झूले पर नहीं झुलाया और मरने के बाद खूब झुलाती है। (इस क्षेत्र के आदिवासियों
में मरने के बाद झूले पर झुलाया जाता है। कुटुम्ब के लोगों के अलावा दूसरे मातम के
लिए आने वाले भी मृत शरीर को झूला देकर झुलाते हैं।)

जीवित रहते हुए माता-पिता को नहलाया नहीं और मरने के बाद खूब नहलाते हैं। गीत में यह बताया गया है कि माता-पिता की सेवा पुत्र और पुत्रवधू को ठीक से करना
चाहिए। मरने के बाद के कार्य तो चली आ रही परम्परा है।