मृत्यु से लौटती हव्वाएँ / मंजुला बिष्ट
वह जितनी बार मुट्ठी कसकर
मरने के तरीक़े सोचती
उतनी ही बार असाध्य रह गया
एक ज़रूरी काम पुकार लेता
वह दुःखों के बीज नाभि से निकाल फेंकती रही
उसे याद आती
वह एक हव्वा
जो निकली तो थी
रेल की पटरी पर लेटने को
लेक़िन साँझ होते ही लौट आई थी
दबे पाँव पालने के पास खड़ी हो ख़ुद को ललचाती
"छाती से दूध उतर रहा सूखने तक ठहर जाऊँ क्या?"
दहलीज़ के पार भले ही किसी ने
उसे पटरी की तरफ जाते देख शक़ किया हो
लेक़िन दहलीज़ ने कभी संलग्न दीवारों तक को नही बताया
कि अमूनन हव्वाओं की छातियाँ कभी नही सूखती!
हव्वाओं की दूध उतरती छाती
सभी दुःख झेल जाने की असीम क्षमता रखती है
जो हव्वाएँ सन्तति को ले कुएँ में उतर गई
या जो पटरी पर पाई गई कई टुकड़ों में
उन्होंने जरूर दुःखों को दिल पे ले लिया होगा
नाभि पर नहीं!