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मृत्यु सोचते हुए / अंचित
Kavita Kosh से
और कविता मर जाएगी मेरे भीतर एक दिन,
बिना किसी पूर्वसूचना के,
और मैं पड़ा रहूँगा वैसे ही खाली,
जैसे जैविक उद्यानों में पड़े रहते हैं
खाली बाड़े पंक्षियों के-
उदास, खाली, धूल धूसरित,
लिए हुए अपने अन्दर असंख्य घोसलें
जिनमे स्मृतियाँ चोंच से डाली गयीं कभी
तिनको के भीतर।
कविता के साथ
मैं लाल पानी में तैरता हुआ
घड़ियाल का बच्चा हो जाता हूँ-
और कविता एक सपने के जैसे
जहाँ मिट्टी पानी मिलते हैं
वहाँ अपनी खुरदरी त्वचा से सहलाती है मुझे।
कविता मर ही जाएगी मेरे भीतर एक दिन
ये तय है क्योंकि
मैं एक लिपटा हुआ लट्टू हूँ जिसे
तना हुआ रखती है कविता की डोर।
ये होना भी
एक चिर कविता ही है
जिसका शब्द भर होता हुआ कवि
मारा जाएगा किसी एक दिन।