मेघ-गीत / महेन्द्र भटनागर
उमड़ते-गरजते चले आ रहे घन
घिरा व्योम सारा कि बहता प्रभंजन
अंधेरी उभरती अवनि पर निशा-सी
घटाएँ सुहानी उड़ीं दे निमन्त्रण !
कि बरसो जलद रे जलन पर निरंतर
तपी और झुलसी विजन-भूमि दिन भर,
करो शान्त प्रत्येक कण आज शीतल
हरी हो, भरी हो प्रकृति नव्य सुन्दर !
झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी हो,
जगत मंच पर सौम्य शोभा खड़ी हो,
गगन से झरो मेघ ओ! आज रिमझिम,
बरस लो सतत, मोतियों-सी लड़ी हो !
हवा के झकोरे उड़ा गंध-पानी
मिटा दी सभी उष्णता की निशानी,
नहाती दीवारें नयी औ' पुरानी
डगर में कहीं स्रोत चंचल रवानी !
कृषक ने पसीने बहाये नहीं थे,
नवल बीज भू पर उगाये नहीं थे,
सृजन-पंथ पर हल न आये अभी थे
खिले औ' पके फल न खाये कहीं थे !
दृगों को उठा कर, गगन में अड़ा कर
प्रतीक्षा तुम्हारी सतत लौ लगा कर
हृदय से, श्रवण से, नयन से व तन से,
घिरो घन, उड़ो घन घुमड़कर जगत पर !
अजब हो छटा बिजलियाँ चमचमाएँ,
अंधेरा सघन, लुप्त हो सब दिशाएँ
भरन पर, भरन पर सुना राग नूतन
नया प्रेम का मुक्त-संदेश छाये !
विजन शुष्क आँचल हरा हो, हरा हो,
जवानी भरी हो सुहागिन धरा हो,
चपलता बिछलती, सरलता शरमती,
नयन स्नेहमय ज्योति, जीवन भरा हो !
1950