भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेघ-गीत / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उमड़ते-गरजते चले आ रहे घन

घिरा व्योम सारा कि बहता प्रभंजन

अंधेरी उभरती अवनि पर निशा-सी

घटाएँ सुहानी उड़ीं दे निमन्त्रण !

कि बरसो जलद रे जलन पर निरंतर

तपी और झुलसी विजन-भूमि दिन भर,

करो शान्त प्रत्येक कण आज शीतल

हरी हो, भरी हो प्रकृति नव्य सुन्दर !

झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी हो,

जगत मंच पर सौम्य शोभा खड़ी हो,

गगन से झरो मेघ ओ! आज रिमझिम,

बरस लो सतत, मोतियों-सी लड़ी हो !

हवा के झकोरे उड़ा गंध-पानी

मिटा दी सभी उष्णता की निशानी,

नहाती दीवारें नयी औ' पुरानी

डगर में कहीं स्रोत चंचल रवानी !

कृषक ने पसीने बहाये नहीं थे,

नवल बीज भू पर उगाये नहीं थे,

सृजन-पंथ पर हल न आये अभी थे

खिले औ' पके फल न खाये कहीं थे !

दृगों को उठा कर, गगन में अड़ा कर

प्रतीक्षा तुम्हारी सतत लौ लगा कर

हृदय से, श्रवण से, नयन से व तन से,

घिरो घन, उड़ो घन घुमड़कर जगत पर !

अजब हो छटा बिजलियाँ चमचमाएँ,

अंधेरा सघन, लुप्त हो सब दिशाएँ

भरन पर, भरन पर सुना राग नूतन

नया प्रेम का मुक्त-संदेश छाये !

विजन शुष्क आँचल हरा हो, हरा हो,

जवानी भरी हो सुहागिन धरा हो,

चपलता बिछलती, सरलता शरमती,

नयन स्नेहमय ज्योति, जीवन भरा हो !

1950