मेघ-मल्लार / प्रभाकर माचवे
मालव की संध्याएँ 
मेघल अवसाद-लदी ! 
कोमल-मधु-याद बँधी — 
सजल, शीत, बह बयार।
 
मन का सब व्यथा-भार 
बह चले निराधार 
निराकार... 
मन में सुधि उतर चली । 
दूर-दूर की लहरी 
व्यापक चली रोम-रोम । 
आनत काली बदली 
ज्यों दाहक चैत में भी 
नाप रही पूर्व व्योम — 
‘होम, स्वीट होम' ! 
मैं खींच रहा हूँ आज अकाज लकीरें 
आ भर दे उनमें रंग-रूप तू पी रे ! 
मैं तालहीन स्वरहीन छेड़ता वंशी, 
तू भर दे उसमें नाद-माधुरी धीरे ! 
कुछ रिक्त हो चली दुनिया मेरे मन-सी। 
कुछ रिक्त हो चली जगती इस जीवन-सी 
तुम निज आर्द्रा घिर-घर कर क्षण-भर छा दो — 
सन्तुष्ट हो चले हिय की प्यासी हंसी । 
तुम अलस-भाव से प्राण, मलार कँपा दो 
जो बरस पड़े सहसा याँ सावन-भादों, 
यों सरस हो उठे अवनि-दिशा-घर-अम्बर 
हो जाएँ एक सब बिछुड़ी तन-मनसा दो ! 
आपाट लगे... हो गई निहाल प्रतीची 
उस क्षितिज-कोर तक गीली गुलाल सींची 
किसी प्रतीक्षिता ने हेमल-रेखा खींची। 
निज बिथा सघन, घन छोरहीन तू कह ले 
करव-पंखी, किरमिजी, असित मटमैले 
यक्ष के विधुर उच्छ्वास गगन तक फैले। 
बदली-गुंठन में विस्तृत वन-गिरि आवृत 
घन नील लेख से क्षितिज रेख भी संवृत 
अग-जग में विश्रुत मात्र निदारुण निभृत। 
गोधूलि मेघमय, सुधा-करुण यह वेला 
घर विहग लौटते, तिमिर उरग भी फैला 
जा रहा पान्थ अश्रांत अशांत अकेला।
 
	
	

