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मेघ / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
ले आया मेघ घर वह हमारे लिए जाना-पहचाना।
आज इस काली भोर बेला में पहुँच सकता हूँ
उस देश ढेलकर दिनों का पहाड़। जाने कब
भाग कर कौन किसको पकड़ ले, किसने जाना।
एक विदा से दूसरी विदा के बीच
है सरलरेखा-सा वह पथ
और उसके आखिरी छोर पर खड़ा है दो
सौ वर्षों का बरगद पुराना।
कहता है वह इतना भय क्यों, आओ
इस जगह बैठो आकर —
आज मेघ से जाना प्रथम साहस का आना।
मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)