मेघ / शशिधर कुमर 'विदेह'
हम मेघ थिकहुँ, धरतीवासी ! ई जीवन हमरहि आनल अछि।
नञि गोर जदपि हम छी कारी, पर स्नेह सुधा संग आनल अछि॥
जखन-जखन एहि भूतल पर,
रविकिरणक साहस बढ़ैत गेल।
सभ जीव जन्तु , गाछी बिरछी,
जल विन्दु-विन्दु ले तरसि गेल।
एहि दारुण दुःख मे संग तोहर, हर बेर हृदय मोर कानल अछि।
हम मेघ थिकहुँ, धरतीवासी ! ई जीवन हमरहि आनल अछि॥
हर आह हमर शीतल बसात ,
नोरक हर बुन्न बनल अमृत।
लहलहा उठल खेतक जजाति,
हर जीव तृप्त, धरती संसृत।
स्वागत मे सदिखन आदिकाल सँ मोर मुदित मन नाचल अछि।
हम मेघ थिकहुँ, धरतीवासी ! ई जीवन हमरहि आनल अछि॥
हर सड़सि ताल सरिता निर्झर,
वन उपवन हमरहि सँ शोभित।
हर जड़ि चेतन केर प्राण हमहि,
छी रग मे हमहीं बनि शोणित।
हमरहि निर्मित ई सकल स्वर्ग , हमरहि वसन्त ई आनल अछि।
हम मेघ थिकहुँ, धरतीवासी ! ई जीवन हमरहि आनल अछि॥
नञि दोष हमर, जँ हो अनिष्ट!,
आ नाचथि ताण्डव महाकाल।
जलमग्न धरा, बाढ़िक कारण,
आ देखि पड़य कत्तहु अकाल।
सोचू एहि मे अछि दोष ककर ? की नियम अहाँ सभ मानल अछि ?
हम मेघ थिकहुँ, धरतीवासी ! ई जीवन हमरहि आनल अछि॥