मेज़ का व्यवहार / राम सेंगर
साथवाला पलँग अब
ख़ाली नहीं रहता ।
किताबें अख़बार
कागज़ क़लम दफ़्ती ,
इन्हीं सब से
मेज़ का व्यवहार पाले हैं ।
भावना में भटकने से
बचे रहकर ,
ज़िन्दगी के सन्तुलन
कुछ यूँ निकाले हैं ।
सहज होना कहाँ सम्भव
शिराओं में राग
पिघली आग - सा बहता ।
एक हरियल तसल्ली
भीतर छिड़ककर ,
तरन्नुम की टूट का
संज्ञान लेते हैं ।
हमीं पूरक हैं
हमारी अधबनी के ,
कहाँ कितनी झोल है
पहचान लेते हैं ।
ज़िक्र आया था - कहें कुछ ,
बात का सच , जदपि ,
मुखड़ा ही रहा कहता ।
साथवाला पलँग ,अब, खाली नहीं रहता ।