मेटि सकै नहिं कोइ / सूरदास
राग घनाक्षरी
मेटि सकै नहिं कोइ
करें गोपाल के सब होइ।
जो अपनौ पुरषारथ मानै अति झूठौ है सोइ॥
साधन मंत्र जंत्र उद्यम बल ये सब डारौं धोइ।
जो कछु लिखि राख्यौ नंद नंदन मेटि सकै नहिं कोइ॥
दुख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कतहि मरत हौ रोइ।
सूरदास स्वामी करुनामय स्याम चरन मन पोइ॥
यह पद सूरकृत विनयपत्रिका से उद्धृत है। मनुष्य लाख जतन करे लेकिन होता वही है जो भाग्य में लिखा होता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में कहा है कि गोपाल अर्थात् भगवान् जो चाहता है वही होता है। यदि मनुष्य यह गर्व करता है कि उसने श्रम किया था, पुरुषार्थ किया था तभी उसका कार्य सफल हुआ है तो उसका ऐसा गर्व करना मिथ्या है। प्राय: देखा जाता है कि मनुष्य अथक परिश्रम करता है, तब भी उसे उसका पर्याप्त फल नहीं मिलता। क्योंकि उसके भाग्य में में ऐसा लिखा ही नहीं होता। तब फल कैसे मिल सकता है? कभी-कभी इसके विपरीत स्थिति होती है। मनुष्य कुछ भी परिश्रम नहीं करता तब भी उसका अल्प पुरुषार्थ ही सिद्ध हो जाता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में समझाया है। सूरदास कहते हैं कि जितने भी तंत्र-मंत्र आदि साधन हैं, वह सब निरर्थक हैं। वे तो मात्र मन को दिलासा देने के माध्यम मात्र हैं। उनसे कुछ भी होना-जाना नहीं है, अत: भूलकर भी उनका आश्रय मत लो। सत्य तो यह है कि जो कुछ भी भाग्य में विधाता ने लिख दिया है, उसी को भोगना है। उसके लिखे को कोई भी नहीं मिटा सकता। प्राय: देखा गया है कि सृष्टि में जीवादि हानि-लाभ, सुख-दुख को लेकर व्यर्थ का प्रलाप करते रहते हैं। जबकि वह यह नहीं समझते हैं कि भाग्य में ऐसा ही लिखा था। (रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने इस बात को स्पष्ट किया है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ अर्थात् हानि, लाभ, जीवन मरण, कीर्ति-अपकीर्ति यह सब विधाता के हाथ में है। तब भी मनुष्य इसके कारण स्वयं को दुखी किए रहता है। इस पद में भी सूरदास इन्हीं बातों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हानि, लाभ, सुख, दुख आदि को विधाता का लेख समझकर बिसरा दो। करुणा के सागर भगवान् के चरणों की शरण ग्रहण करो, इसी से कल्याण होगा।