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मेढक / आनंदीप्रसाद श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
किस तरह मेढक फुदकता जा रहा,
देखने में क्या मजा है आ रहा!
कूदते चलते भला हो किस लिए,
तुम मचलते हो भला यों किसलिए!
बाप रे, गिरना न थाली में कहीं
दाल के भीतर खटाई की तरह,
हाथ पर आ बैठ जाओ खेल लो
साथ मेरे आज भाई की तरह!
थे छिपे टर्रा रहे तुम तो कभी
पर नहीं क्यों बोल सकते हो अभी!
बात हमसे क्या करोगे तुम नहीं
देख लो तुम तो भगे जाते कहीं!
-साभार: बालगीत साहित्य (इतिहास एवं समीक्षा), निरंकारदेव सेवक, 156