भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेन्यू कार्ड / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
कुछ बारिश का मौसम था
कुछ अलसाये थे किचन में
चूल्ह चौका बरतन
और थोड़े से हम
पेट के अपने
तक़ाज़े होते हैं
ज़बां की अपनी
फ़रमाइश होती है
चटपटे खाने
और खानों में
इलाक़ाई ख़ुश्बू का
अपना सहर होता है
ऐसे में दिलको समझाना
कहां की समझदारी होती है
भूक की आखिर बतलाओ
किस्से रिश्तेदारी होती है
मगर इस लॉकडाउन में
लज़ीज़ खानों के हर
ढाबे होटल पे
ताले लगे रहे
ख़ाली प्लेट
और ख़ाली प्याले
डाइनिंग टेबल पे सजे रहे
और फोटोशॉप से बने हुये
इन्हीं ढाबे होटल के सारे
मेन्यू कार्ड के
ख़ुशरंग खाने
हमारी टेबल पे
रखे रहे ॥