भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरा अकेला ख़ुदा याद आ रहा है मुझे / 'साक़ी' फ़ारुक़ी
Kavita Kosh से
मेरा अकेला ख़ुदा याद आ रहा है मुझे
ये सोचता हुआ गिरजा बुला रहा है मुझे
मुझे ख़बर है के इक मुश्त-ए-ख़ाक हूँ फिर भी
तू क्या समझ के हवा में उड़ा रहा है मुझे
ये क्या तिलिस्म है क्यूँ रात भर सिसकता हूँ
वो कौन है जो दियों में जला रहा है मुझे
उसी का ध्यान है और प्यास बढ़ती जाती है
वो इक सराब के सहरा बना रहा है मुझे
मैं आँसुओं में नहाया हुआ खड़ा हूँ अभी
जनम जनम का अँधेरा बुला रहा है मुझे